यह नक्षत्र बृहस्पति का पहला नक्षत्र है अतः इस नक्षत्र मे पैदा हुए अधिकांश जातक जीवन को सदा ज्ञान क्षेत्र की ओर अभिमुख रखते हैं सारा समय अध्ययन मनन मे बिता डालते हैं ऐसे जातक सांसरिक नियमनों से भी पूर्णतः संपर्क रखते हैं, बृहस्पति के नक्षत्र मे पैदा हुए जातक ४५ वर्ष की आयु के उपरांत ही विशेष ख्याति एवं सम्मान अर्जित करते हैं।
पुनर्वसु नक्षत्र का आधिपत्य देवी अदिति के पास है ये देवी धात्रि हैं, जो प्रकृति और देवताओं मे प्रचुरता या बहुलता का संचार करती हैं। इसमे वासुत्व प्रपन्न शक्ति का संचार है, ऊपर की ओर इसका आधार वायु है, तो नीचे की ओर वर्षा का जल है, और ये मिलकर पौधों मे पुनरुक्ति के संचार के द्योतक हैं। पुनर्वसु नक्षत्र प्रकृति मे ऊर्जा के संचार की दृष्टि से भी देखा जा सकता है। जैसे सूखे के बाद वर्षा ऋतु का आगमन जो हमारे जीवन मे प्रेरणा और रचनात्मकता का भी द्योतक है।
पुनर्वसु नक्षत्र के होने पर वाहनो की खरीद और मरम्मत आदि के कार्यों के लिए उपयुक्त है, मित्रों से मिलना, बागवानी, शोभायात्रा मे शामिल होने के लिए, ये एक अस्थिर तीव्र या चर नक्षत्र है, और तमाम अस्थायी प्रकृति के कार्यों के लिए उपयुक्त हो सकता है। इस नक्षत्र की अधिपति अदिती उन व्यक्ति विषय वस्तु एवं परिस्तिथियों की ओर इंगित करती हैं जो सामान्यतः अविभाज्य है अंतरिक्ष के विस्तार को अविभाज्य माना गया है तो मिथिकीय संदर्भों में अंतरिक्षीय आकाश का देवत्व भी अदिती को प्राप्त है इस प्रकार अंतरिक्षीय आकाश जिसे सभी तत्वों की जननी की भी मान्यता प्राप्त है ऐसे मे निसंदेह अदिती को अन्य सभी देवों की मातृशक्ति कहा जा सकता है। अंतरिक्षीय आकाश की सक्रियता और चक्रीयता मे भौतिक और सदृश्य व्यक्ति विषय वस्तु एवं परिस्तिथियों के गर्भ और समाधि दोनों की ही विद्यमानता है। तो पुनर्वसु शब्द मे सृष्टि सृजन चक्रीयता आदि अनादि और अंत अनंत सब समाहित होते जाते हैं। पुनर्वसु शब्द नीरसता रूखेपन जीर्णता और प्राचीनता की ओर भी इंगित करता है और ये पुरानी वस्तुओं के संग्रह मे रुचि का परिचय देता है इसके साथ ही ये नक्षत्र जल्दबाज़ी मे व्यक्ति विषय वस्तु एवं परिस्तिथियों को उबाऊ बोझिल या वृद्ध समझने की भूल का भी परिचायक है। पुनर्वसु का स्वागत वहाँ है जहां नए उत्साह की आवश्यकता है किन्तु वहाँ नही जहां धैर्य और लंबी अवधि की प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। अदिति के नक्षत्र पुनर्वसु चक्रियता को दर्शाता है प्रारम्भ अंत और फिर पुनः प्रारम्भ पुनर्वसु से गुजरने वाले प्रत्येक पिंड में अपने समय पर ऋणात्मक सकारात्मक दोनों तरह के गुण देखे जा सकते हैं जैसे बुध और चंद्र पुनर्वसु के सकारात्मक पक्ष को प्रकट करने मे सहायक देखे जा सकते हैं वस्तुस्तिथियों में बदलाव परिवर्तन की आवश्यकता और उनके पुनरुद्धार को भी इंगित करते हैं राहु एवं केतू यहाँ अति को प्राप्त होते देखे जा सकते हैं बृहस्पति को मध्य की किसी परिस्थिति या औसत फलों को प्राप्त करते देखा जा सकता है इसी क्रम में सूर्य शनि एवं मंगल को यहाँ अस्थिरता लिए हुए और पुनरुद्धार की अत्याधिक आकांक्षा करते हुए भी पाया जा सकता है किन्तु शुक्र को पुनर्वसु की नैसर्गिकता के साथ सामंजस्य बनाते हुए देखा जा सकता है। पुनर्वसु को सदैव एक परिवर्तन की आकांक्षा करने वाले नक्षत्र या नभ मण्डल की तरह ज्योतिष मे देखा जा सकता है, इस तरह की चाहत में एक आधारभूत समस्या भी छिपी हुई है कि कोई जितना जोश या उत्साह उमंग की आकांक्षा करेगा उतना ही वो उसके विरोधाभाषी गुणों अर्थात उदासी आदि को एक पेंडुलम चक्रीयता में प्राप्त करने का ग्राही होता जाएगा।
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पुनर का शाब्दिक या मानक अर्थ दोबारा और वसु का अर्थ चमकदार या उज्ज्वल होता है, यानि के पुनर्वसु को हम दोबारा या पुनः होने वाली घटनाओं या चक्रीय वस्तुपरिस्तिथियों की तरह भी देख समझ सकते हैं। जैसा की पहले ही उद्धरित है कि इस नक्षत्र का आधिपत्य अदिति के पास है, अदिति जो कि ब्रह्मांड या विस्तीर्ण ब्रह्मांड का जिससे फैलाव है उसका नाम भी है अर्थात हम अदिति को धागों या तंतुओं से बनी एक ब्रह्मांडीय फैलने वाली अदृश्य चादर की भांति भी अपनी कल्पना मे समाहित कर सकते हैं, यहाँ ध्यान देने या स्मरण करने वाली एक बात ये भी है कि अदिति शब्द मे ही असीम या विस्तीर्ण भी समाये हुए हैं अर्थात अदिति मे ही ब्रह्मांड मे विद्यमान सब कुछ समाया हुआ है।