विशेष नोट …. द्वि द्वादश शीर्षक पर लिखे इस लेख को भकूट विचार आदि से जोड़कर देखने का प्रयास ज्योतिष के नए पुराने छात्र न करें, ये लेख पूरी तरह से लेखक के अनुसंधान एवं अवलोकन अनुभवों से प्रेरित है, यदि आप चाहें तो इसे अन्य किसी भी ज्योतिषीय योग संयोग से जोड़ कर अपने अनुभवों की सीमाओं में देख सकते हैं, भकूट विचार पर इस ब्लॉग में लेख ‘विवाह मेलापक’ नामक भिन्न शृंखला में प्रकाशित होगा, यहाँ मूलतः ये लेख मनुष्य की चन्द्र राशि की दूसरे किसी मनुष्य की चन्द्र राशि के साथ सम्बन्धों की व्याख्या में लिखा गया है अर्थात विवाह से इतर अन्य मित्रवत या पारिवारिक सम्बन्धों को स्मरण करते हुए इस लेख शृंखला का उद्भव इस ब्लॉग के माध्यम से यहाँ हुआ है।
द्वि द्वादश में संबंध
ज्योतिष का उपयोग नक्षत्र मण्डल की करीब करीब ऐसे व्याख्या करना है या आकाश में ग्रहों की स्तिथी का ऐसे आकलन करना है जिससे हम मानव जीवन में घटनाओं की संभावित आवृति का अनुमान लगा सकें और इस अनुमान की क्षमता से कोई भी मनुष्य निर्णय क्षमताओं का विकास अपनी सीमाओं में कर सकें।

भचक्र या राशिचक्र में यदि आकाश को बारह या द्वादश खंडों में विभाजित किया जाए तो मेष से मीन तक हमें राशियाँ प्राप्त होती हैं इस बात को हम पहले ही ज्योतिष के आरंभिक चरणों को सीखते हुए जान चुके हैं। आज हम द्वि द्वादश राशियों के मध्य किसी भी तरह के दुनियावी संबंध पर एक ज्योतिषीय दृष्टि डालने का प्रयास करेंगे अर्थात एक व्यक्ति के मन को संचालित करने वाली चंद्र राशि यदि मेष है और उसकी मित्रता की सीमाओं में आने वाले एक दूसरे व्यक्ति की चन्द्र राशि मीन है तो उनके सम्बन्धों मे व्याप्त राशि मण्डल की ऊर्जाओं को समझने का एक क्षुद्र या अल्प प्रयास इस ब्लॉग लेख के माध्यम से करेंगे। कल्पना कीजिए की आगे पीछे की राशियों के मध्य कोई मित्रतापूर्ण संबंध है जिससे दोनों पक्ष अच्छे या शुभ परिणामों की आशा बांधे हुए हैं, तो क्या संभावना है के उनकी आशाओं की पूर्ति सहजता से हो जाएगी या किसी एक के लिए शुभ और दूसरे के लिए एक तरह की अशुभता लिए हुए ये संबंध होने वाले हैं। आगे पीछे की राशियों के मध्य होने वाले विपरीत लिंगी या विवाह संबंध पर दृष्टि डालने से पहले विवाह से इतर केवल सभी तरह की मित्रवत संभावनाओं पर नज़र डालते हैं। जैसा कि हम लोग जानते हैं के बारह खंडों में विभाजित राशिमण्डल एक विशेष तरह की ऊर्जा को प्रेषित करते हैं जिसे हम कई नामों से जानते हैं, जैसे उक्त राशिमण्डल का स्वामित्व किस ग्रह के पास है और उस ग्रह का स्वभाव कैसा है। उदाहरण के लिए मकर का स्वामित्व शनि के पास है और एक राशि पूर्व धनु का स्वामित्व यदि नक्षत्रों की बारीकी पर न जाएँ तो बृहस्पति के पास है ठीक इसी प्रकार तुला राशि का स्वामित्व शुक्र के पास है और एक राशि पूर्व कन्या का स्वामित्व बुध के पास है इस प्रकार इन राशिमंडलों की चर्चा करते हुए कोई भी ज्योतिर्विद ये बात जानता है के फलां राशि का जातक किस प्रकार के स्वभाव का सामान्य परिचय दुनिया में देगा किन्तु वो अपने से आगे या पीछे पड़ने वाली राशि की ऊर्जा से स्वयं को चुम्बकीय रूप से जुड़ा हुआ या सहसा आकर्षित पाएगा ऐसे में उसके सामने इन राशि के जातकों के प्रभाव में आने की बाध्यता यहाँ दृष्टिगत होती है। और इस तरह दो व्यक्तियों की राशि के मध्य होने वाले इस आकर्षण के संबंध का संदर्भ हम ज्योतिष में प्रचलित द्वि द्वादश योग से जोड़कर ले सकते हैं। विगत पंद्रह वर्षों के अनुसंधान और अवलोकन में हमने ये पाया है के ये द्वि द्वादश योग नब्बे प्रतिशत से अधिक सटीक बैठता है, अर्थात यदि आप दो मित्रों या दो साझेदारों के बीच इस योग को पाते हैं तो आप वहाँ इनकी मित्रता से उत्पन्न होने वाली घातक परिस्तिथियों की भविष्यवाणी नब्बे प्रतिशत की सटीकता के साथ कर सकते हैं, अन्य शब्दों में भचक्र या चक्रीयता में आगे पीछे की राशियों के मध्य अन्यथा चुंबकीयता से निर्मित होने वाले संबंध दुनिया समाज परिवार आदि के लिए शुभता की अपेक्षा अधिकांशतः अशुभता लिए हुए ही होते हैं। कई बार जिसकी राशि सम्बन्धों में द्वादश होती है उदाहरण के लिए सिंह कन्या के बीच मित्रवत संबंध होने पर सिंह द्वादश राशि है उसका लाभ उससे द्वि पड़ने वाली राशि यानि इस उदाहरण में कन्या को जाएगा, एक अन्य उदाहरण से समझें कन्या तुला से द्वादश है किन्तु कन्या को लग्न लेने पर तुला द्वि राशि है ये द्वि द्वादश संबंध हुआ इस संबंध की अशुभता में कन्या को लंबी अवधि में इस संबंध में अशुभता प्राप्त होने की संभावना ही अधिक है। इसे और ठीक से समझने के लिए आगे पीछे की राशियों में कौन अधिक बली है या किसे अधिक बल प्राप्त है इसकी गणना कोई भी ज्योतिर्विद सहजता से कर सकता है तुला कन्या में कन्या का बल सामान्यतः आप शुक्र के स्वामित्व में आने वाली तुला की अपेक्षा कम या क्षीण ही पाएंगे… आगे पीछे की राशियों में ये भी पाया गया है के दो व्यक्तियों में जिसकी राशि दूसरे से द्वादश है वो संबंध क्षीणता का अनुभव या चुंबकीयता में स्वयं को बाध्य रूप से खिंचता हुआ पाता है अर्थात द्वादश राशि अपनी ऊर्जा का व्यव द्वि के लिए होते हुए पाता है इस चुम्बकत्व को स्वामी और सेवक सम्बन्धों से सहज रूप से समझा जा सकता है जैसे सेवक अपने स्वामी के लिए अपनी ऊर्जा के व्यव होने का साक्षी है उसी प्रकार कर्क राशि सिंह के लिए अपनी ऊर्जा के व्यव होने को साक्षी भाव से देखता है। राशि चक्रीयता में इसे और ठीक से समझने के लिए भावी ज्योतिर्विद ये बात स्मरण रखें के सूर्य के स्वामित्व में आने वाली सिंह राशि के लिए चंद्र के स्वामित्व में आने वाली कर्क राशि स्वयं को व्यय या ऊर्जा को खर्च होने की साक्षी होती है, इसे ज्योतिष में सूर्य के राजा और चंद्र के रानी ग्रह की संज्ञाओं से जोड़ कर और अधिक तीव्रता या सहजता से भावी ज्योतिर्विदों द्वारा समझा जा सकता है। विपरीत लिंग में इस तरह के चुंबकीय आकर्षण के मध्य होने वाले सम्बन्धों को भी इसी सूर्य चन्द्र या सिंह कर्क उदाहरण से समझा जा सकता है, किन्तु राशि चक्र में अन्य जगह न तो सूर्य चंद्र का आगे पीछे की राशियों पर ऐसा आधिपत्य या स्वामित्व है और न उनके स्वाभाविक गुणों की तुलनीयता ठीक सूर्य चंद्र के इस संयोग जैसी बनती है, किन्तु इस उदाहरण और द्वि द्वादश चुम्बकीय आकर्षण को हम विपरीत लिंग सम्बन्धों के संदर्भ में सूर्य चंद्र उदाहरण से जोड़ कर अवश्य देख सकते हैं, क्योंकि सभी तरह की संस्कृतियों में यदि स्त्री को अपनी ऊर्जा के व्यव या क्षय का साक्षी पुरुष के लिए होना पड़ता है तो ये द्वि द्वादश संबंध चलायमान हो सकता है, किन्तु इसी द्वि द्वादश संयोग को अन्य मित्रवत सम्बन्धों पर यदि लागू किया जाए तो स्वतन्त्रता की आकांक्षा या बंधन से मुक्ति की मांग अन्य सभी स्तिथियों में दुनिया में व्याप्त दिखाई पड़ती है। इस लेख में हम इस योग या संयोग के सामाजिक पक्ष की अपेक्षा भाग्य या ज्योतिष की सीमाओं में पड़ने वाले या दृष्टिगत सिद्धांतों की व्याख्या ही कर रहे हैं, ऐसे में सभी भावी ज्योतिर्विद इस सिद्धान्त को अपने अनुसंधान या अवलोकन में समाहित कर ही यदि संभव हो तो इसकी पुनर्व्यख्या भी अपने लेखों के माध्यम से करें।